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कश्मीर निरंतर युद्ध के साये में

के. के. नंदा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :303
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2681
आईएसबीएन :81-7315-356-6

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प्रस्तुत पुस्तक जम्मू-कश्मीर को आधार बनाकर लिखी गई है

Kasmir Niranter Yudha Ke Or

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय सेना, अर्धसैनिक बलों एवं राज्य पुलिस के उन वीरों तथा समस्त नागरिकों को समर्पित, जिन्होंने करगिल तथा जम्मू-कश्मीर में परोक्ष युद्ध का सामना करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी और उन कश्मीरी पंडितों, सिखों तथा अन्य समुदायों के लोगों को समर्पित, जिन्होंने उग्रवादियों का सामना करते हुए कश्मीर में ही रहने का निश्चय किया।

दो शब्द

भारत-पाक संबंधों में कश्मीर एक ऐसा विषय है जिसकी हर कोई चर्चा भी करता है और उसके समाधान के लिए सुझाव भी देता है-बिना उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं विशेष ज्ञान के। इस स्थिति को देखते हुए मुझे इस विषय पर एक पुस्तक लिखने की प्रेरणा मिली-‘कॉनकरिंग कश्मीर: ए पाकिस्तानी ऑब्सेशन’। अंग्रेजी में लिखी इस पुस्तक का विमोचन 4 अगस्त, 1994 को तत्कालीन विपक्ष के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था।

मेरी उस पुस्तक का स्वागत हुआ और कई संगठनों ने मुझे इस विषय पर भाषण देने के लिए भी आमंत्रित किया। लगभग प्रत्येक ऐसे सत्र के पश्चात् एक सुझाव बार-बार मेरे समक्ष रखा जाता था कि इस पुस्तक का हिंदी में अनुवाद होना चाहिए। मैंने पुस्तक का अनुवाद करवाने का तीन बार प्रयास किया, लेकिन तीनों प्रयास असफल रहे। हताश होकर मैंने यह विचार छोड़ दिया।

तत्पश्चात् मैंने निश्चय किया कि किसी हिंदी लेखक के सहयोग से सैनिक शब्दावली एवं पर्याप्त अंग्रेजी शब्दों सहित हिंदी में एक नई पुस्तक ही लिखी जाए। इसी सिलसिले में मेरी भेंट सुश्री पैमिला मानसी से हुई, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज के अंग्रेजी विभाग में रीडर हैं और साथ ही लेखिका भी। जब मैं इस कॉलेज के शासी निकाय का अध्यक्ष था, तभी मेरा परिचय डॉ.अलका कुमार और उनके पति डॉ.रजत कुमार से हुआ, जो प्रतिष्ठित सैनिक अस्पताल ‘रिसर्च एंड रेफरल हॉस्पिटल’ में विशेषज्ञ हैं। डॉ. अलका कुमार ने ही पैमिला मानसी का नाम सुझाया। शीघ्र ही हम दोनों ने किताब पर काम आरंभ कर दिया। भाषा पर तो पैमिलाजी का अधिकार है ही, मेरे विचार और दृष्टिकोण भलीभाँति समझकर उन्हें भावाभिव्यक्त करने में भी उन्हें कभी कठिनाई नहीं हुई। मैं पैमिलाजी के प्रति आभार प्रकट करता हूँ। उन्होंने पूरी निष्ठा एवं लगन से यह दायित्व निभाया है।

पुस्तक जम्मू-कश्मीर (जिसे पुस्तक में अकसर कश्मीर ही कहा गया है) के विषय में, जो स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् सदैव अशांति से सुलगता रहा है और जिसकी रग-रग को प्रशमित करने की आवश्यकता है। सन् 1947-48 तथा 1965 में कश्मीर को हथियाने में असफल हो जाने के बाद पाकिस्तान ने सन् 1989 में वहाँ परोक्ष युद्ध आरंभ कर दिया, जो आज तक चल रहा है। मई-जून 1999 में उसी को तीव्र करके पाकिस्तान ने करगिल में मुजाहिदों के अतिरिक्त अपनी नियमित सेना का प्रयोग करके उसे पूर्णत: युद्ध का रूप दे दिया। भारतीय सेना एक बार तो अचंभित रह गई; लेकिन उसने शत्रु को बुरी तरह परास्त कर दिया। इसके बावजूद पाकिस्तान उसी पुराने खेल को जारी रखे हुए है। बल्कि पहले से भी अधिक। पाकिस्तान कश्मीर को भारत से अलग करके अपने में विलय करना चाहता है; लेकिन भारत ऐसा कभी नहीं होने देगा।
मैं पंजाब में मुसलमानों के साथ ही पला-बढ़ा हूँ। सन् 1945 से 1947 तक के सांप्रदायिक दंगों का मुझे निकटता से अनुभव है। सन् 1971 के युद्ध में मैंने कश्मीर घाटी में एक बिग्रेड का नेतृत्व किया। अपनी इस पृष्ठभूमि के कारण मुझे एहसास हुआ कि मैं इस विषय पर पूरे अधिकार से लिख सकता हूँ, इस पुस्तक में मैंने महत्त्वपूर्ण समकालीन घटनाओं का विश्लेषण किया है, जम्मू-कश्मीर की सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों को आँकने की चेष्टा की है और भारत एवं पाकिस्तान दोनों की विवशताओं को समझने का प्रयास किया है। पुस्तक के अंत में मैंने इस जटिल समस्या को सुलझाने के लिए कई सुझाव भी दिए हैं। यदि ये सुझाव त्रुटिपूर्ण प्रतीत हों तो शीघ्र ही इनसे बेहतर समाधानों को खोज निकालने की आवश्यकता है, ताकि जल्दी-से-जल्दी इस विवाद को सुलझाया जा सके। यदि यह पुस्तक आम आदमी का ध्यान इस जटिल व नाजुक विषय की ओर खींच सके और सत्ताधारियों को इसे शीघ्रताशीघ्र सुलझाने के लिए प्रेरित कर सके तो मैं अपने इस प्रयास को सफल समझूंगा।

‘गुरुजी’ के नाम से लोकप्रिय श्री विश्वनाथजी का, उनके मूल्य सहयोग एवं महत्त्वपूर्ण सुझावों के लिए मैं धन्यवाद करता हूँ।
मेरी पत्नी सुषमा सदा मेरे लिए, शक्ति का स्रोत रही हैं। यदि वे लगातार प्रेरित न करती रहतीं तो शायद यह पुस्तक कभी लिखी ही न जाती।
मैं श्री नरेंद्र प्रताप सिंह का भी धन्यवाद करता हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक के लिए अनिवार्य सभी मानचित्र तैयार करने तथा अन्य कई प्रकार से मेरी सहायता की। मैं दफेदार मनोहर सिंह शेखावत का भी आभारी हूँ, जिन्होंने मेरी इस पुस्तक के लिए समय-समय पर कई प्रकार के दस्तावेजों में से प्रासंगिक सामग्री ढूँढ़ निकाली।
अंत में ‘सूर्या फाउंडेशन’ के उन सब कर्मचारियों का भी धन्यवाद, जिन्होंने कई प्रकार से मुझे सहयोग दिया और पुस्तक बिना किसी विलंब के लिखी जा सकी।

गणतंत्र दिवस, 2001
नई दिल्ली -ले.जनरल के.के.नंदा
(सेननिवृत्त)

मेरी बात


कथा साहित्य और कविता से इस ओर। एक यात्रा, एक अनुभव। सुखद भी कठिन भी। कठिन इतना कि पहले तीन अध्याय लिखते समय हर कदम पर सोचती कि कहाँ फंस गई, यहीं छोड़ दूँ; लेकिन छोड़ नहीं पाई। ‘धरती का स्वर्ग’ और ‘पूर्व’ का स्विट्जरलैंड’ कहा जानेवाला कश्मीर आज भी इतना ज्वलंत विषय है कि एक जलते अंगारे की भाँति समय-समय पर करगिल युद्ध के रूप में हमारे हाथ जला देता है। इसलिए कश्मीर के विषय में इतनी जानकारी पाने और उसे पाठकों के साथ बाँटने का अवसर खोना नहीं चाहती थी। कश्मीर समस्या एक गंभीर समस्या है। हमारे पड़ोसी देश ने इसे न केवल एक विवाद का रूप दे रखा है, बल्कि सीमा पर स्थिति को इतना विस्फोटक बना रखा है कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। कश्मीर युद्ध और आतंकवाद के साये में जी रहा है। युद्ध का साया एक टाइम बम की तरह टिक-टिक करता रहता है, जो न जाने कब फट जाए। इसलिए आवश्यक है कि इस विषय में सही जानकारी जनसाधारण तक पहुँचाई जाए। यह कार्य भारतीय सेना के एक वरिष्ठ एवं अनुभवी अधिकारी से बेहतर और कौन कर सकता है। जनरल के.के.नंदा (सेवानिवृत्त) ने स्वयं सन् 1971 के युद्ध में सक्रिय भाग लिया और एक ब्रिगेड का कुशलता से संचालन किया। मैं समझती हूं, पुस्तक में दी गई जानकारी की प्रामाणिकता के लिए यह पर्याप्त है।

यही नहीं, देश के विभाजन के विषय में भी सुव्यवस्थित ढंग से जानकारी मिल रही है। विभाजन की पीड़ा को मेरे परिवार ने झेला है। इसलिए विभाजन मेरे लिए एक दुखती रग है; क्योंकि मेरा घर छिन गया-वह घर, जहाँ मेरी जड़ों को फैलना था।
इस पुस्तक को रूपाकार देने में मेरी भूमिका केवल एक सहयोगी की रही है। यह पुस्तक प्रत्येक अर्थ में जनरल के.के.नंदा की कृति है। इसमें व्यक्त प्रत्येक विचार एवं दृष्टिकोण उनका है। जितनी और जिस प्रकार की जानकारी इस पुस्तक में दी गई है, वह भी उनके शोध का परिणाम है। मैंने केवल इस पुस्तक का वर्तमान रूप रचने में उनको सहयोग दिया है; क्योंकि वे यह पुस्तक हिंदी में लिखना चाहते थे और इसके लिए उन्हें किसी सहयोगी की आवश्यकता थी।

मेरा सौभाग्य है कि इस कृति से जुड़ने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। इसके लिए मैं जनरल नंदा का धन्यवाद करती हूँ, जिन्होंने मुझे इस योग्य समझकर इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। यहाँ मैं अपनी दोस्त डॉ.अलका कुमार का विशेष रूप से धन्यवाद करना चाहूँगी, जिसने इस कार्य के लिए मेरे नाम का सुझाव दिया।
मैं श्री विश्वनाथ (जिन्हें जनरल नंदा प्रेम से ‘गुरुजी’ कहते हैं) के प्रति समय-समय पर उनके द्वारा दिए गए सुझावों के लिए आभार प्रकट करती हूँ।
पुस्तक आपके हाथ में है। कमियाँ तो कई रह गईं होंगी। किसी भी कृति को बेहतर बनाने की गुंजाइश सदा रहती है। केवल इतना कह सकती हूँ कि जो दायित्व मुझे सौंपा गया था, उसे मैंने अपनी पूरी क्षमता तथा ईमानदारी से निभाया है।

-पैमिला मानसी

भूमिका


लॉर्ड माउंटबेटन ने 23 मार्च 1947 को लॉर्ड वेवल से भारत के वाइसराय का पद सँभाला। उन्होंने देश में तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश डालते हुए वाइसराय के रूप में अपने कार्य के विषय में कहा कि ‘वे हिज मेजस्टी की सरकार के वसीयतकर्ता की स्थिति में थे। ब्रिटेन मृत्युशय्या पर पड़े वसीयतकर्ता की भाँति था, जिसके पास विशाल राज्य, संपत्ति शक्ति और विशेषाधिकार थे। कांग्रेस तथा मुसलिम लीग उत्तराधिकारी थे। केबिनट मिशन योजना से दोनों उत्तराधिकारी ही अपनी पैतृक संपत्ति का उपभोग कर सकते थे। चूँकि योजना असफल हो गई, इसलिए हिंदुओं एवं मुसलमानों के बीच पैतृक संपत्ति के लिए केवल छीना-झपटी ही रह गई।’

कांग्रेस सदा एकता के पक्ष में रही; लेकिन मुसलिम लीग विभाजन चाहती थी और एक पृथक् राष्ट्र-पाकिस्तान। यह एहसास होने पर कि एकता संभव नहीं, कांग्रेस ने 1 मई 1947 को सैद्धांतिक रूप से पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया और माउंटबेटन को इसकी सूचना दे दी। माउंटबेटन ने कांग्रेस तथा मुसलिम लीग दोनों को स्वीकार्य एक योजना तैयार की और अपनी सरकार का अनुमोदन पाते ही 3 जून, 1947 को उसकी सार्वजनिक घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि 15 अगस्त को भारत एवं पाकिस्तान दोनों देशों को सत्ता हस्तांतरित कर दी जाएगी। पंजाब तथा बंगाल का विभाजन कर दिया जाएगा और पाकिस्तान में सम्मिलित होनेवाले क्षेत्रों के वासियों की इच्छा जानी जाएगी।

‘भारतीय स्वाधीनता अधिनियम’ के अनुच्छेद 7 के अनुसार-‘भारत की विभिन्न रियासतों पर ब्रिटेन के सम्राट का आधिपत्य समाप्त हुआ।’ अब वे बिना दोनों अधिराज्यों में सम्मिलित हुए स्वाधीन रह सकती थीं। संवैधानिक स्थिति के बावजूद भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने ‘हाउस ऑफ लॉडर्स’ में कहा, ‘हमारा इरादा किसी भी रियासत को अंतरराष्ट्रीय इकाई के रूप में मान्यता देने का नहीं है।’ उन्होंने राजाओं को भी निश्चित रूप से बताया, ‘चूँकि ब्रिटिश सरकार आपको मान्यता नहीं देगी, इसलिए और भी कोई नहीं देगा। आपके पास भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित होने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं।’ इससे पहले केबिनट मिशन ने भी 16 मई, 1946 के अपने बयान के चौदहवें अनुच्छेद में सत्ता-हस्तांतरण के पश्चात् रियासतों की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा था, ‘सत्ता अब न ब्रिटिश सरकार रख सकती है और न ही नई सरकार को दे सकती है।’ इसलिए अगस्त 1947 में रियासतों के पास नए अधिराज्यों में से किसी एक के साथ मिलने के अलावा और कोई चारा नहीं था। चुनाव रियासत के राजा के हाथ में था। वह अपने राज्य के हितों को ध्यान में रखकर, सामीप्य के आधार पर किसी एक अधिराज्य में शामिल हो सकता था-बिना जनसंख्या की संरचना या उसके विचारों का ध्यान किए।

पाकिस्तान का विचार था कि चूंकि कश्मीर की अधिकांश जनसंख्या मुसलमान थी, इसलिए विभाजन के तर्क के अनुसार उसे पाकिस्तान में सम्मिलित होना चाहिए। लेकिन राज्य के शासक महाराजा हरीसिंह इस विषय में बहुत आश्वस्त नहीं थे। उनका झुकाव स्वाधीनता की ओर अधिक था। पाकिस्तान प्रतीक्षा नहीं करना चाहता था। उसने राज्य पर हर प्रकार का दबाव डाला और गतिरोध होते हुए भी आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए, जिससे वहाँ के लोगों को दैनिक सुविधाएँ भी प्राप्त होनी कठिन हो गई। अंतत: पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रशिक्षित हजारों उग्रवादियों ने राज्य पर आक्रमण कर दिया और कश्मीर को भारत के अंचल में धकेल दिया। महाराजा ने राज्य की रक्षा के लिए भारत से अनुरोध किया। भारत ने सेना भेजने से पहले अधिमिलन पर जोर डाला। महाराजा ने 26 अक्टूबर, 1947 को अधिमिलन-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और 27 नवम्बर से भारतीय सेना श्रीनगर पहुँचनी आरंभ हो गई। चौदह महीने की लड़ाई के बाद 1 जनवरी 1949 को राज्य का चालीस प्रतिशत भाग पाकिस्तान के अधिकार में था और तिरपन वर्ष पश्चात् यानी आज तक भी है। यह पाकिस्तान के आक्रमण तथा लूटमार की अवैध प्राप्ति है।

कश्मीर पर अधिकार करने के पहले प्रयास में असफल होकर पाकिस्तान ने सन् 1965 में दूसरा प्रयास किया। उसका विचार था कि सन् 1962 की पराजय के बाद भारत दुर्बल हो चुका है और पाकिस्तानी आक्रमण का सामना नहीं कर पाएगा। वैसे भी सन् 1964 में पं.नेहरू के देहांत के बाद वह भारत के नए प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री को ‘छह फीट लंबे, भारी और मांसाहारी हट्टे-कट्टे अयूब खान’ के मुकाबले में एक ‘अदना सा घास खानेवाला बौना’ समझता था। इस अदना से बौने ने छह फीट के पठान को नीचा दिखाया और पाकिस्तान को अपनी विनम्रता एवं शक्ति दोनों का परिचय दिया। महत्त्वपूर्ण लड़ाइयाँ जीतकर एवं हाजीपीर दर्रे पर अधिकार करके युद्ध का क्षेत्र बढ़ाकर उसे पश्चिमी पंजाब में अंतरराष्ट्रीय सीमा के भीतर तक पहुंचा दिया। पाकिस्तान भारत से कश्मीर छीनने के दूसरे प्रयास में भी विफल रहा।
सन् 1965 के बाद तो पाकिस्तान पर कश्मीर जीतने की धुन सवार हो गई। ‘ताशकंद समझौते’ के बाद पंजाब, सिंध एवं जम्मू-कश्मीर में अपने क्षेत्र वापस पाते ही उसने कश्मीर विवाद को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाना चाहा तथा और कई प्रकार से भारत पर दबाव डालने का प्रयत्न किया, लेकिन सफल नहीं हुआ। सन् 1971 में जब उसने अपने पूर्वी भाग में समस्या उत्पन्न हो रही थी तब भी उसने दिसंबर में भारत पर आक्रमण कर दिया, ताकि जम्मू-कश्मीर में अपने अधिकृत क्षेत्र का विस्तार करके घाटी को शेष भारत से अलग-थलग कर सके और स्वयं शक्ति की स्थिति से भारत के साथ किसी समझौते पर पहुँचकर अपने पूर्वी भाग में फैलती समस्या का भी समाधान कर सके। पाकिस्तान को भारी पराजय का सामना करना पड़ा और उसकी सेना के नब्बे हजार जवानों तथा अधिकारियों ने हथियार डाल दिए। यही नहीं, उसने अपना पूर्वी भाग भी खो दिया, जो ‘बँगलादेश’ के नाम से एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया। इस बार समूचे पश्चिमी पाकिस्तान की जनता को उसकी भारी पराजय का पूरा ज्ञान था और वह इस बात को लेकर क्रोधित थी। उन्होंने याहिया खान को इस पराजय के लिए दोषी ठहराया और उन्हें पद छोड़ने पर बाध्य कर दिया। युद्ध विराम के तीन दिन बाद ही 20 दिसंबर, 1971 को जुल्फिकार अली भुट्टो ने पाकिस्तान का राष्ट्रपति पद ग्रहण किया। अपने पहले राष्ट्रीय प्रसारण में ही भुट्टो ने ‘भारत द्वारा किए अपमान का बदला’ लेने की कसम खाई।

जुलाई 1972 में भारत एवं पाकिस्तान ने ‘शिमला समझौते’ पर हस्ताक्षर किए, जिसके अंतर्गत दोनों ‘उस संघर्ष को समाप्त करने के लिए सहमत हो गए जिसके कारण उनके परस्पर संबंध बिगड़े थे। मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित करने तथा उपमहाद्वीप में स्थायी शांति की स्थापना के लिए भी वे एकमत हो गए।’ उन्होंने यह भी स्वीकारा कि ‘दोनों देश द्विपक्षीय वार्त्तालाप तथा शांतिपूर्ण ढंग से अपने मतभेद मिटाएँगे। किसी सुनिश्चित समझौते से पहले दोनों में से कोई भी स्थिति को बदलने के लिए एकतरफा कार्यवाही नहीं करेगा और दोनों ही शांति तथा मित्रतापूर्ण संबंधों के विरुद्ध किसी भी गतिविधि में सहयोग या प्रोत्साहन नहीं देंगे। एक-दूसरे की राष्ट्रीय एकता, क्षेत्रीय अखंडता, राजनीतिक स्वतंत्रता और प्रभुसत्ता का सम्मान करने के लिए सहमति के अलावा शिमला समझौते में यह प्रावधान भी था कि दोनों देश अपनी सेनाओं को वापस अंतरराष्ट्रीय सीमा तक हटा लेगें, परंतु केवल जम्मू-कश्मीर में 17 दिसंबर, 1971 के युद्ध विराम के बाद बनी नियंत्रण रेखा दोनों पक्षों को मान्य होगी। पारस्परिक मतभेदों के बावजूद भी कोई एक पक्ष उसे एकतरफा बदलने का प्रयास नहीं करेगा। दोनों पक्ष सैनिक बल से इस रेखा का उल्लंघन नहीं करेंगे।

जहाँ तक शिमला समझौते के अंतर्गत सिंध एवं पंजाब में अपने क्षेत्र तथा युद्ध बंदी वापस पाने का प्रश्न था, पाकिस्तान प्रसन्न था। एक बार यह प्रक्रिया पूरी हो गई तो अपने स्वभाव के अनुसार उसने ‘शांति प्रक्रिया आरंभ करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया और इस संदर्भ में भारत के प्रत्येक सुझाव को अस्वीकार करता रहा। युद्धबंदियों की वापसी पर सारी जनता को वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो गया। उसने पाकिस्तानी सेना को दोषी ठहराया और सेना ने बदले में राजनेताओं को।
भुट्टो चाहते थे कि सेना और उनके शासन के प्रति पूर्ण निष्ठा रखे। इसी आशय से उन्होंने कई सेनाधिकारियों को पीछे छोड़कर जनरल जिया-उल-हक की पदोन्नति करके उन्हें सेनाध्यक्ष नियुक्त किया। जिया ने कुछ समय के लिए इंतजार किया और फिर जुलाई 1977 में तख्ता पलट कर भुट्टो को अपदस्थ करके स्वयं पाकिस्तान के राष्ट्रपति तथा मुख्य मार्शल लॉ-प्रशासक बन गए। तत्पश्चात् भुट्टो को हत्या के आरोप में फँसाकर सन् 1979 में मृत्युदंड दे दिया गया। इस प्रकार अंत हुआ एक तूफानी और घटनापूर्ण जीवन का।

सेनाध्यक्ष होने के कारण जिया सन् 1971 की अपकीर्तिकर पराजय को लेकर पाकिस्तान सेना की भावनाओं को भलीभाँति समझते थे और प्रतिशोध चाहते थे। अब वे कार्यवाही करने की स्थिति में भी थे। वे कश्मीर को पाना चाहते थे; परंतु यह भी जानते थे कि भारत के साथ खुला युद्ध उनके उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक नहीं होगा। काफी सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने ‘ऑपरेशन टोपैक’ की योजना तैयार की और भारत पर धीमा युद्ध थोपने का तथा उसे आइ.एस.आइ.(इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस) द्वारा परोक्ष युद्ध से दिशा प्रदान करने का निर्णय लिया। परोक्ष युद्ध का लक्ष्य कश्मीर घाटी को विद्रोह एवं तोड़-फोड़ के रास्ते स्वाधीन कराना था। यह कार्यवाही आरंभ करने से पहले पाकिस्तान ने घाटी में भारत विरोधी भावनाएँ भड़काईं और काफी हद तक वहाँ की जनता को अलग कर देने में सफल भी हो गया। अगस्त 1988 में जनरल जिया के देहांत से कुछ बाधा तो आई, लेकिन विशेष नहीं। सन् 1989 के मध्य तक कश्मीर में परोक्ष युद्ध आरंभ हो गया, जो आज तक चल रहा है। जिया के बाद की सभी सरकारों ने हर स्तर पर पूरी निष्ठा के साथ ‘ऑपरेशन टोपैक’ के पहले चरण की पूर्ति के लिए कार्य किया। वे लगभग सारे कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर निकालने में सफल हो गए। वे जम्मू क्षेत्र में डोडा, किश्तवाड़ तथा घाटी से बाहर बचे-खुंचे हिंदू लघु क्षेत्रों को भी सांप्रदायिक रूप से साफ कर देने में सफल हो गए। लेकिन फिर भी इस कार्यवाही के आरंभ होने के ग्यारह वर्ष पश्चात् भी वे परोक्ष युद्ध के पहले चरण के समस्त उद्देश्यों को पूरा करने में सफल नहीं हो पाए।

श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत-पाक संबंधों को एक बार फिर सुधारने के लिए 20 दिसंबर 1998 को ‘लाहौर यात्रा’ की। 21 दिसंबर को शिखर सम्मेलन के बाद दोनों प्रधानमंत्रियों ने ‘लाहौर घोषणा’ पर हस्ताक्षर किए, जिसमें दोनों देशों के बीच शांति एवं स्थिरता तथा जनसाधारण की समृद्धि एवं विकास के साझे स्वप्न का उल्लेख है।

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